कमर कस ले

कभी उतार तो, कभी चढ़ाव,
कभी धूप तो, कभी छांव,
कभी सूखा तो, कभी बरसात।
इन्हीं विपरीत दिशाओं के बीच ही तो बसती है 
अपनी ज़िन्दगी। आप कैसे इन उतारो और चढ़ावो को संतुलित करते हो वो आप पर निर्भर करता है।
याद रखो कि खुद की लड़ाइयां खुद को ही लड़नी होती है।
आप ही देख लो आपको गमों से बस रोना ही है या फिर अपनी खुशियों के लड़ना है।
ना वक़्त कुछ करेगा ना ही किस्मत,
जब तक की आप अपने आप को तैयार ना कर लो।
कमर कस ले कविता इन्हीं भावों को व्यक्त करती है।
यह कविता बस मेरा एक छोटा सा प्रयास है कि रोना से कुछ नहीं होता है लड़ना पड़ता है अपने हक के लिए।

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रोने से तो,
आज तक किसी का
कुछ हुआ नहीं है,
तो तेरा कैसे हो जाएगा।

तुझे गिराने वाला,
तेरे अश्कों को देख,
हंस जरूर जाएगा।

तुझे वो रुलाता जाएगा और
तू रोता ही रह जाएगा।

तुझे वो कायर ही बतलाएगा,
तुझे वो यूहीं सताएगा।

तू बस वक़्त और किस्मत को, 
दोष देता ही रह जाएगा।

तोड़ दे तू बंदिशे सारी,
समझ ले तू खुद की जिम्मेदारी,
कर ले तू लड़ने की तैयारी।

हौंसले को तू मूटी में भर ले,
इस दफा तू अपनी तो सुन ले,
कमर तू अपनी कस लें।

©Mukeshyasdiary
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