नारी


 

टूट के भी, ना जाने कैसे यह जुड़ी सी रहती है,
चाहे कैसी भी हो, ठीक हूं यह कहती है,
ना जाने कितने ही गम अपने अंदर यह सहती है,
कोने में अकेले रोकर के सबसे सामने यह हंसती है।
यूंही नहीं दुनिया उनको नारी कहती है।

कभी किसी की मा बनके,

कभी किसी की बहन बनके,

कभी किसी की जीवनसाथी बनके,

यह एक मकान को घर बनाती है,

अपने सपनों की कुर्बानी दे कर, 

यह औरो के सपने संजोती है,

लेकिन क्यों उनकी सीमा 

रसोई तक ही बताई जाती है?

फिर भी यह छुपी रुस्तम जैसे

अपनी जिममेदारि बेखूबी निभाती रहती है

यूंही नहीं दुनिया उनको नारी कहती है।


 


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